Wednesday, November 30, 2011

पुष्करणों रो ठाठ सवायो पुष्करणा ब्राह्मण राज्य विद्यागुरू

पुष्करणों रो ठाठ सवायो पुष्करणा ब्राह्मण राज्य विद्यागुरू राजकुमारों को विद्या पढ़ाने के प्रारम्भ का मुहूर्त तो जो पुष्करणा ब्राह्मण राज्य ज्योतिषी हैं वे नियत करते हैं, परन्तु विद्या पढ़ने का प्रारम्भ भी सबसे प्रथम तो जो पुष्करणा ब्राह्मण राज्य विद्यागुरू हैं उन्हीं से करते हैं। इस पद बीकानेर के राज्य से तो सदा से रंगा जाति के पुष्करणा ब्राह्मण ही नियत थे किन्तु जैसलमेर जोधपुर में ऐसे एक जाति वाले नियत नहीं हैं, परन्तु जिस समय इस पद पर जो नियत होते थे उन्हीं के पास विद्याभ्यास करवाते थे। पुष्करणा ब्राह्मण राज्य कथा व्यास इस जाति में वेदों का प्रचार है वैसे ही मन्वादि धर्मशास्त्रों, महाभारत आदि इतिहासों और भागवत आदि पुराणों का भी प्रचार हैं। इसलिये मारवाड़ देश में धर्म के उपदेशक भी बहुधा पुष्करणा ब्राह्मण हैं। जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर के महाराजाओं के राज्य मन्दिरों में तथा इन राज्यों के अन्तरगत के छोटे-बड़े जागीरदारों के मन्दिरों में प्रतिदिन कथा बाचने के लिये सदा से पुष्करणा ब्राह्मण ही नियत है। इसके उपरान्त अपने अन्यान्य यजमानों के यहां भी कथा बाचते हैं और वंश परम्परा से कथा बाचने वालों की उपाधि भी ‘कथा व्यास’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई है। पुराणादिक शास्त्रों का पाठ करने वालों को व्याकरण, कोष, काव्य, अलंकार, छन्द आदि अन्यान्य ग्रंथ भी पढ़ने पड़ते हैं अतः पुष्करणा ब्राह्मण भी इन ग्रन्थों के बड़े विद्वान् पूर्ण ज्ञाता पण्डित होने से नाना प्रकार की उपाधियों से विभूषित हैं। पुष्करणा ब्राह्मण राज्य पुस्तकाध्यक्ष राजाओं के यहां नित्य और नेमित्य समय में यथायोग्य दान किया जाता है। उस दान को लेने वाले तो अनेकानेक ब्राह्मण आते हैं उन्हीं को दिया जाता है परन्तु दान का संकल्प कराने वाले ‘दानाध्यक्ष’ सदा से पुष्करणा ब्राह्मण ही है। इस समय जैसलमेर दरबार के यहां तो त्रिवाड़ी जोशी बीकानेर दरबार के यहां कीकाणी व्यास और जोधपुर दरबार के यहां व्यास पदवी वाले चण्डवाणी जोशी है। पुष्करणा ब्राह्मण राज्य के जोशी वेदिया राजाओं के यहां शान्ति, पूजा-पाठ, मंत्र अनुष्ठान आदि करने के लिए प्रायः पुष्करणा ब्राह्मण भी सदा नियत रहते थे और आवश्यकता पड़ने पर उपरोक्त कर्म करने के लिए उनकी वरणी बिठलाई जाती है। उस समय वर्ण दक्षिणा तथा कर्म दक्षिणा देने के उपरान्त उन्हें प्रतिदिन इच्छा भोजन भी कराते हैं। ऐसे कर्म करने का प्रचार जोधपुर की अपेक्षा जैसलमेर तथा बीकानेर के राज्यों में अधिक है। पुष्करणा ब्राह्मण राज्य ज्योतिषी इस जाति में ज्योतिष विद्याा का प्रचार सदा से चला आता है जिसके प्रताप से भूत भविष्य और वर्तमान का चमत्कार कई राजा महाराज को दिखलाया है और कइयों ने तो देवताओं को भी चकित किया है। (जैसे:- चोवटिया जोशी परबरजी ने शुक्र और बृहस्पति जी को तथा लुद्र (कल्ला) ब्रह्मदत्तजी ने शुक्रजी को इत्यादि)। जैसलमेर के भाटी महाराजाअेां के वंश परम्परा के पुरोहित राधोजी बड़े विद्वान थे उने पुत्र चण्डूजी तो साक्षात् भास्कर का अवतार ही हुये। जोधपुर के राव मालदेवजी जो जैसलमेर परणे थे उनके साथ जोधपुर आ गये। फिर उन्होंने अपने नाम का ‘चण्डू पंचांग’ सं. 1588 में निकाला था। आज तक उनके वंश वाले प्रतिवर्ष बराबर बनाते आए हैं। इस भारत देश में जितने पंचांग प्रकाशित होते हैं उनके प्राचीन व प्रतिष्ठा प्राप्त यही ‘चण्डू पंचांग’ ही गिना जाता है। चण्डूजी ने ज्योतिष के कई अद्भुत ग्रंथ बनाये थे जो उने वंश वालों के पास विद्यमान है। चण्डूजी के वंश वाले भी बड़े-बड़े विद्वान हुए हैं और ज्योतिष विद्या के प्रभाव से जोधपुर महाराजाओं से कइयों ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है। जैसलमेर में व्यास अचलदासजी बड़े विद्वान ज्योतिषी हुए थे। उनकी फलित विद्या इतनी प्रबल थी कि उस समय में उनकी बराबरी करने वाला इस प्रांत भर में शायद ही कोई हुआ होगा। बीकानेर में भी आचार्य श्री विश्वरूपजी भी विद्वान हुए थे जो जोधपुर के सुप्रसिद्ध ज्योतिष चन्दूजीके शिष्य थे, उन्होंने चन्दूजी के घर गूंगा बनकर नौकरी की तथा ज्योतिष विद्या सीखी। बीकानेर पहुंचकर सर्वप्रथम उन्होंने पंचांग निर्माण का कार्य किया क्योंकि इससे पूर्व दरबार में अन्य स्थानों के पंचांग पढ़े जाते थे। श्री विश्वरूपजी को तत्कालीन महाराजा द्वारा ज्योतिषी के पद पर आसीन किया गया एवं नोखा तहसील में गांव सेणीवाला इनायत किया। प्रारम्भ में पंचांग हस्तलिखित एवं विभिन्न सुनहरी चित्रों से सुसज्जित होते थे कालान्तर में मुद्रण व्यवस्था हो जाने पर अन्य पंचांगों की तरह मुद्रित होने लगे। बीकानेर राज्य के राजस्थान में विलीन होने तक राज्य में एकमात्र मान्यता प्राप्त विश्वरूप पंचांग ही था। श्री विश्वरूपजी द्वारा ज्योतिष के कई ग्रन्थों की रचना की गई जिन में ब्रह्म पक्षीय पंचांग गणित, जन्मपत्री निर्माण कला, मूहर्त दर्शन एवं फलित विज्ञान आदि मुख्य हैं। आप ज्योतिष शास्त्र के अतिरिक्त व्याकरण, न्याय एवं दर्शन शास्त्र के भी विद्वान थे। ऐसा सुनने में आया है कि बीकानेर में ज्योतिष विद्या का प्रसार श्री विश्वरूपजी के वंशजों द्वारा ही किया गया। यद्यपि ओझा जाति के लोग आचार्यों के कुलगुरु हैं किन्तु इन्होंने भी ज्योतिष की शिक्षा आचार्य परिवार से ही प्राप्त की। ओझाओं के यहां से उक्त विद्या किराडु.ओं के परिवार में गई। श्री विश्वरूपजी के दो पुत्र हुए हैं, श्री पोकरजी एवं सुखदेवजी। ज्येष्ठ पुत्र श्री पोकरजी ने तो ज्योतिष विद्या को आजीविका उपार्जन का साधन नहीं बनाया किन्तु कनिष्ठ पुत्र श्री सुखदेवजी अपने समय के जाने माने ज्योतिषी थे। इनके परिवार वालों ने ज्योतिष विद्या को अपनाया अतः श्री सुखदेवजी के वंशज ज्योतिषी आचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। इनके वंशजों में अनेकों प्रसिद्ध ज्योतिषी हुए हैं। राज्य ज्योतिषी का पद एवं श्री विश्वरूपजी को इनायत हुआ। ग्राम अन्त तक श्री सुखदेवजी के परिवार वालों के पास ही रहे। बीकानेर में किराडू. किस्तुरचन्दजी आदि नाम विद्वान हुए थे जिन से इन्दौर प्रांत के कई दक्षिणी ब्राह्मणों ने विद्याध्ययन की थी। मराठों के राज्य शासनकाल में एक कल्ला जाति के पुष्करणा ब्राह्मण ने मराठी के सेनापति को युद्ध के समय ज्योतिष का चमत्कार दिखलाया था जिससे प्रसन्न होकर ‘‘मांगलियावास’ नाम का एक गांव (अजमेर के इलाके) दिया था, जो आज तक उनके वंश वाले पुष्करणा ब्राह्मणों की अधीनता में आता है। बड़ौदा के महराजा गणपतराव गायकवाड़ की चण्डवाणी जोशी ‘ज्येष्ठमलजी’ ने ज्योतिष के फलित के कई बार अद्भुत-अद्भुत चमत्कार दिखलाये थे, जिसके प्रभाव से उनको लाखों ही रूपये मिले थे। वे भी उन रूपयों को ब्राह्मण भोजन कराने आदि में लगा देते थे। उनकी सन्तान को भी बड़ौदा के राज्य से कुछ वार्षिक मिलता था। इसी प्रकार कइयों से ब्राह्मणों को गांव, कुंए, खेत आदि मिले हैं और जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर आदि की रियासतों में ‘राज-ज्योतिषी’ के पद पर पुष्करणा ब्राह्मण ही नियत हैं। पुष्करणा ब्राह्मण राज्य वैद्य इस जाति में आयुर्वेद विद्या भी परम्परा से चली आती है। इसके प्रताप से बादशाहों के समय में भी जागीरें मिली थीं, जिनका संक्षिप्त वृतान्त टंकशाली व्यास लल्लूजी व व्यास देवऋषि के इतिहास में लिखा गया है। इसके उपरान्त अन्यान्य राजाओं से मिली हुई जागीरें तो अब तक विद्यमान हैं। जोधपुर के राव जोधाजी के पुत्र बीकाजी अपना राज्य पृथक स्थापित करने के लिए ‘जांगल’ देश की ओर गये तो वहां ‘कोडमदेसर’ नामक एक गांव में ठहरे थे। वहां पर उनकी महाराणी आसन्न प्रसुता होने के कष्ट से बहुत ही अधिक पीड़ित थी। उस समय जैसलमेर के राजवैद्य व्यास देवऋषिजी के पुत्र ‘जूठोजी’ तीर्थ-यात्रा को जाते हुए वहां पर आ गए। उन्होंने तत्काल महाराणी को कष्ट से मुक्त किया जिससे प्रसन्न होकर बीकाजी ने बीकानेर का राज्य स्थापित होने पर उनको एक गांव दिया था, सो आज तक उनकी सन्तान की आधीनता में है और व ही जूठाणी व्यास बीकानेर दरबार के यहां राज्य वैद्य थे। इसी प्रकार जैसलमेर, जोधपुर आदि में ‘राजवैद्य’ के पद पर भी पुष्करणा ब्राह्मण ही हैं। पुष्करणा ब्राह्मण वेद पाठी जिन सिन्धी ब्राह्मणों से यह जाति बनी है उनमें पूर्वोक्त गौत्रों वाले तो ऋग्वेदी, कई यजुर्वेदी, कई सामवेदी और कई अथर्ववेदी थे। परन्तु इस समय ‘ऋग’ और ‘अथर्व’ की अपेक्षा ‘यजुर्व’ और ‘सामवेदी’ ब्राह्मण ही पुष्करणों में अधिक हैं। इसलिये पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति में इन्हीं दो वेदों का प्रचार है। पुष्करणा ब्राह्मण मेंयज्ञ करने की प्रथा इस जाति वाले परम्परा से श्रौत तथा समान धर्मानुसार अनेक प्रकार के यज्ञ करते आये हैं। उनमें ‘विष्णु यज्ञ’ नामक यज्ञ प्रधान है जिसके तीन भेद हैं। एक तो ‘महाविष्णु यज्ञ’ दूसरा ‘विष्णु यज्ञ’ और तीसरा ‘लघुविष्णु यज्ञ’। इनमें महाविष्णु यज्ञ तो ‘लक्ष भोज’ नाम से, विष्णुयज्ञ ‘अशेषभोज’ व ‘सहस्रभोज नाम से और लघुविष्णु यज्ञ ‘पंचपर्वी’ नाम से पुष्करणों में प्रसिद्ध हैं। ऐसे यज्ञों के समय ब्राह्मण भोजन कराने के लिए अपनी जाति के सम्पूर्ण ब्राह्मणों को देश देशान्तरों में निमन्त्रण भेजकर दूर-दूर से बुलाकर एकत्र हुए। सहस्त्रों ब्राह्मणों को भोजन को लक्षभोज के समय तो 21 दिनों तक, अशेषभोज व सहस्त्रभोज के समय 7 दिनों तक और पंचपर्वी के समय 5 दिनांे तक उत्तमोत्तम भोजन कराने के पश्चात् ब्राह्मण को लक्षाभोज में तो वस्त्र तथा पात्र देने के उपरान्त 1-1 स्वर्ण मुद्रा (सोने की मोहर), अशेषभोज व सहस्त्रभोज में 2-2 व 4-4 रुपये, और पंचपर्वी में 1-2 या 2-2 रुपये दक्षिणा देने के उपरान्त आने जाने का मार्ग व्यय देकर बड़े सत्कार के साथ विदा करते थे। इस समय कीअपेक्षा पूर्वकाल में धान्य, घृत, गुड़, खांड आदि सम्पूर्ण वस्तुएं बहुत ही सस्ते भाव में मिलती थीं तो भी इन यज्ञों में लाखों रुपये लग जाते थे। पहले पुष्करणे ब्राह्मण देश के ‘अरोड़’ नामक नगर में अधिक बसते थे। परन्तु विक्रम संवत! के प्रारम्भ से 270 वर्ष पहले यूनान बादशाह ‘सिकन्दर’ ने इस देश पर चढ़ाई की तो ‘अरोड़’ नगर के राज्य को नष्ट कर दिया। उस अत्याचार के समय बहुत से पुष्करणे ब्राह्मण भी मारे गये और जो कुछ शेष बचे वे मारवाड़ की ओर भाग आये जिनकी सन्तान लुद्रवा आदि नगरों में बस गई। फिर लुद्रव के भाटी राजा जैसलजी ने संवत् 1212 में अपने नाम पर जैसलमेर का नगर बसाया तब पुष्करणे ब्राह्मणों को भी बसाया। जैसलमेर में बसने से पहले लुद्रवा आदि में और लुद्रवे से पहले सिन्ध के अरोड़ नामक नगर आदि में बसने के समय वहां पर तो पुष्करणे ब्राह्मणों के किए हुए पूर्वोक्त प्रकार के यज्ञों की तो गणना करना भी कठिन है, परन्तु जैसलमेर में बस जाने के पीछे भी जैसलमेर, फलौदी, जोधपुर, मेड़ता, बीकानेर आदि में ही किए हुए यज्ञों का वर्णन किया जाए तो भी एक बड़ी भारी पुस्तक बन जावे। पुष्करणा ब्राह्मण के दान नहीं लेने के कारण मन्वादी धर्म शास्त्रों में ब्राह्मणों के लिये 6 कर्म माने हैं। यथः - अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दीनं प्रति प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।। मनु. अ. 1 श्लोक 88 विद्या पढ़ना, यज्ञ करना, और दान देना ये 3 कर्म तो परमार्थ के लिये; और विद्या पढ़ाना, यज्ञ करना, और दान लेना ये 3 कर्म जीविका के लिये। इस प्रकार ये 3 कर्म ब्राह्मणों के हैं। प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत्।। मनु. अ. 4 श्लोक 186 प्रतिग्रह (दान लेना यद्यपि है तो ब्राह्मणों ही के कर्म में, तथापि बिना सामर्थ्य के तो लेने की आशा ही नहीं है। किन्तु सामर्थ्यवान् को भी अपने ब्रह्मतेज की रक्षा के लिये इससे अपने को बचाना लिखा है।) यहां तक कि आपातकाल के बिना तो ऐसे-वैसे (पापवृत्ति से जीविका करने वाले) मनुष्य को तो भोजन भी लेने की निषेध है। यथा:- दुष्कृतं हि मनुष्याणामन्नमाश्रित्व तिष्ठति। यो यस्यान्नं समश्नाति स तस्याश्नाति किल्विषय्।। अंगिरास्मृति। मनुष्यों के किये हुए पापकर्मों का फल उनके अन्न में रहता है। अतः अनके दिये हुए अन्न का भोजन करने वाले भी उनके किये हुए पापों के भागी हो जाते हैं। इस लिये भोजन भी शुद्ध वृत्ति से जीविका करने वालों ही का लेना चाहिये। अतः मनुस्मृति में लिखा है कि:- सावित्रीमात्रसरोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रितः। नायन्त्रितस्रिवेदोऽवि यर्वाशी सर्वविक्रयी।। मनु. अ. 2 श्लोक 118 जो ब्राह्मण वेदविक्रय (पैसे ठहराके वेद का पाठ) करने वाला और हर किसी मनुष्य का दिया हुआ अन्न खाने वाला हो वह यदि चारों वेदों का वक्ता हो तो भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ नहीं गिना जाता, किन्तु जो ब्राह्मण वेद विक्रय करने और हर एक का अन्न खाने रूपी दुष्कर्म से बचा हुआ हो तो वह ब्राह्मण केवल गायत्री मन्त्र ही का जानने वाला हो तो भी ब्राह्मणों में श्रेष्ठ गिना जाता है। इन्हीं पूर्वोक्त धर्म शास्त्रों की आज्ञानुसार पुष्करणे ब्राह्मणों की प्रायः समग्र जाति ही प्रति ग्रह (दान) लेने और वेद विक्रय करने रूपी असत्कर्मों से बची हुई है। यहां तक कि जोधपुर आदि मे तो पुष्करणे ब्राह्मण ‘ब्रह्मभोज’ भी केवल एक अपने महाराजा के अतिरिक्त अपने अन्य यजमानों तक का भी नहीं लेते हैं। हाँ सिन्ध, कच्छ आदि के प्रायः पुष्करणे ब्राह्मण अपनी जीविका ब्राह्मण वृत्ति से करते हैं किन्तु वे भी बहुआ अपने यजमानों ही से करते हैं न कि सर्व लोगों से। जिह्व दग्धं परान्नेन हस्तदग्धं प्रतिग्रहात्। मनो दग्धं परस्रीणां मन्त्रसिद्धिः कथं भवेत्।। नित्यप्रति पराया अन्न खाने से जिह्वा नित्यप्रति पराया अन्न खाने से जिह्वा दग्ध हो जाती है,सदैव ही प्रतिग्रह (दान) लेने से हाथ दग्ध हो जाता है और पर स्त्री की इच्छा करने से मन दग्ध हो जाता है। अतः ऐसा करने वाले ब्राह्मण को मंत्र की सिद्धि प्राप्त नहीं होती अर्थात् ब्रह्म तेज नहीं बढ़ता है जिसके कारण उसका दिया हुआ श्राप या आशीष फलीफूत नहीं होती। किन्तु ब्राह्मणों का गौरव ऐसी सामर्थ्य होने ही में है। पुष्करणा ब्राह्मणों में सिद्ध पुरुष ब्राह्मोजी नाम एक आचारज (आचार्य) जाति के पुष्करणा सिंध देश में सिन्धु नदी तट पर गायत्री मंत्र का पुरश्ररण (24 लाख का जप) प्रारम्भ किया था। उस समय एक वृद्ध कुम्भकार अपनी स्त्री तथा एक कुंवारी कन्या सहित इनकी टहल करने को आ रहा। फिर से स्त्री पुरुष तो तीर्थ यात्रा को जाने की बात कहकर वहां से चले गये, और लौटके पीछे आने तक अपनी कन्या को इन्हीं के पास छोड़ गये। वह कन्या इनकी टहल करती रही। इसकी सुन्दरता देखकर एक दिन वहां के मुसलमान नवाब ने इसे लेनी चाही। यह समाचार सुनकर ब्रह्माजी को बड़ा क्रोध आया किन्तु उस दुष्ट के आगे कुछ वश नहीं चलता देख बहुत घबराये। परन्तु जिस समय नवाब इस कन्या को लेने के लिये ब्रह्माजी की झोंपड़ी के भीतर आया तो वहीं कन्या सिंह पर चढ़ी हुई साक्षात् अष्टीभुजा देवी नजर आई। इससे घबराकर ब्रह्माजी से क्षमा प्रार्थना की और आगे से ऐसा अनाचार नहीं करने का प्रण करके अपनी जान बचाई। वह कन्या वास्तव में साक्षात् गायत्री ही थी जो ब्राह्माजी की तपस्या से प्रसन्न हो कर इस रूप से स्वयं इनकी टहल करने को आकर रह गई थीं। फिर वह कन्या ब्रह्माजी को गायत्री का जप सिद्ध होने का वर देकर वहाँ से अदृश्य हो गईं। फिर इस कन्या के वरदान से ब्रह्माजी बड़े सिद्ध पुरुष हुए और उन सिद्धियों द्वारा जगत् का भी उपकार करते रहे। इसी प्रकार चौटिया जोशी ‘वलीरामजी’ सिंध देश के रोड़ी नाम ग्राम में रहते थे। इनके भी साक्षात् गायत्री अरसपरस थी। एक समय लोगों के बहकाने से कितनेक मुसलमान रात्रि के समय उनको सोते हुए चारपाई उठाके सिंधु नदी में डुबाने को ले गये। परन्तु जब चारपाई को डुबानी चाही तो वह उनके कंधों ही पर चिपक गई। इससे घबराकर उन मुसलमानों ने क्षमा मांगी तग उन्होंने कहा कि चारपाई तो वापिस ले जा के रख दो और सदा के लिये हिन्दुओं का चिन्ह धारण करो तब छोड़े। मुसलमान इस बात को स्वीकार करके ‘चोटी’ रखने लगे। सो उनकी सन्तान भी आज तक वलीराम के नाम की चोटी रखवाते हैं और उस रोड़ी ग्राम में वलीरामजी की छत्री है जहाँ प्रतिवर्ष एक मेला भरता है। उस समय हिन्दू-मुसलमान सभी उनकी जियारत करने को जाते हैं। इसी प्रकार सिंध आदि देशों के अतिरिक्त जैसलमेर, पेाकरण, फलौदी, जोधपुर, पाली, नागौर, मेड़ता, बीकानेर, कृष्णागढ़ आदि में भी कई पुष्करणा ब्राह्मण बड़े नामी सिद्ध हुए हैं। यहाँ तक कि इस समय भी ऐसे कई सिद्ध पुरुष इस जाति में विद्यमान हैं। इनकी सिद्धियों का अधिक वृत्तांत ‘पुष्करणोत्पत्ति’ नामक पुस्तक में मिलेगी। पुष्करणा ब्राह्मणोंका धर्म यह जातिसदा से श्रोत (वेद) और स्मार्त (स्मृति) धर्म की अनुयायिनी है और यह स्वयं भी धर्म की पुष्टि करने वाली होने ही से तो इसका नाम भी ‘पुष्टिकरणा’ (पुष्करणा) हुआ है। मारवाड़ देश में ‘पुष्टिमार्ग’ (वल्लभ कुल की सम्प्रदाय) के धर्म का प्रचार हुआ है तब से पुष्करणों ने भी इस सम्प्रदाय को स्वीकार की है। इस देश में पुष्टिमार्ग का प्रचार होने का वृतान्त यों हैं। जोधपुर के महाराजा अभयसिंहजी के गुरू नाथवत व्यास माणिकचन्दजी व जैसलमेर के महाराजा अमरसिंहजी के पाट व्यास (गुरू) मधुवनजी ने प्रथम इस सम्प्रदाय के धर्म को वीकार किया और देश भर में प्रचार कराने के लिये अपने-अपने महाराजाओं को भी इस धर्म को स्वीकार करने बहुत आग्रह किया। उन महाराजाओं ने कहा कि पुष्टिमार्ग के आचार्य गौसाईजी महाराज को यदि हम गुरू बना लेंगे तो फिर हमारे वंश वाले भी इन्हीं के वंश वालों को गुरू मानने लग जावेंगे जिससे आपके वंश वालों का फिर उतना गुरू भाव नहीं रहेगा। परन्तु धर्म की पुष्टि चाहने वाले उन महाशयों ने अपने वंश वालों का गुरू भाव कम हो जाने की कुछ भी परवाह न करके अपने महाराजाओं को गौसांईजी महाराज के शिष्य बना दिये। इसी प्रकार बीकानेर महाराजाभी इन के शिष्य पुष्करणों ही के अनुरोध से हुए। तब से जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर आदि की रियासतों में पुष्टिमार्ग के धर्म का प्रथम प्रचार हुआ। फिर जैसलमेर के तो महाराजा मूलराजजी व जोधपुर के महाराजा विजयसिंहजी और बीकानेर के महाराजा सूरतसिंहजी ने इस धर्म का बहुत ही अधिक प्रचार किया था। कच्छ तथा सिंध देश के भाटिये महाजनों में भी पुष्टिमार्ग का प्रचार हुआ है। उसके प्रारम्भ कराने वाले मुख्य पुष्करणा ही ब्राह्मण है। क्योंकि भाटिये महाजनों के वंश परम्परा के गुरू पुष्करणा ब्राह्मणों ने जिस धर्म को स्वीकार कर लिया तो फिर उनके शिष्य भाटिये महाजन क्यों नहीं करते ? अर्थात् अपने गुरूओं को अनुकरण इन्होंने भी कर लियां अतएव पुष्टिमार्ग की सम्प्रदाय में पुष्करणा ब्राह्मणों की जाति ‘लाल फौज’ (वल्लभ कुल की अंग रक्षक सेना) समझी जाती है। पुष्करणा ब्राह्मणों का आचरण देशों के भेद से गौड़ और द्राविड़ ब्राह्मणों की पृथक-पृथक सम्प्रदायें चली आती है। देश भेद से इनके आचार-विचार, खानपान आदि सम्पूर्ण व्यवहारों में भी भेद पड़ गया है। पुष्करणे ब्राह्मणों की जाति पंच द्रविड़ों के अन्तर्गत गुर्जरों की एक शाखा होने से इनका भी आचार-विचार, खानपान आदि द्रविड़ों ही के अनुकूल चला आता है। परन्तु बहुतसमय तक निर्जल देश में निवास करने और वहां के पुरोहित, गुरू, मुसाहिब आदि होने से उनके साथ-साथ बहुत वर्षों तक आपत्काल में जहां तहां भटकते फिरने आदि कारणों से तथा मुगलों के शासनकाल में जैसलमेर, जोधपुर आदि में उनका अधिकार हो जोने के समय उनके अत्याचार से लोगों का प्राण बचाना ही जब महा कठिन ही हो गया था वैसे समय में ऐसा कठिन आचार निर्वाह होता न देख के पुष्टिमार्ग (बल्लभाचार्य जी को सम्प्रदाय) की मर्यादानुसार अनसखरी अर्थात् पक्का भोजन (लड्डू, पूरी आदि) द्विजमात्र के हाथ का खाने लग गये। किन्तु सखरी अर्थात् कच्चा भोजन (सेारा लपसी आदि) तो अपनी जाति वालों के सिवाय अन्य किसी ब्राह्मण के भी हाथ का बनाया हुआ अब भी नहीं खाते हैं। परन्तु कई पुष्करणे ब्राह्मण तो अब तक भी अपनी पूर्व मर्यादानुसार लड्डू, पूरी आदि पक्का भोजन भी दूसरों के हाथ का बनाया हुआ नहीं खाते हैं। इसीलिये सम्पूर्ण जाति को भोजन कराने के समय तो क्या कच्चा और क्या पक्का सभी पक्कान्न अपनी जाति वालों ही के हाथ से बनाया जाता है। इस प्रथा के लिये सम्पूर्ण पुष्करणे ब्राह्मणों को बालपन ही से भोजन बनाने की शिक्षा दी जाती है। इसके उपरान्त विवाह आदि के समय जाति में बांटने के लिये जो लड्डू बनाये जाते हैं तो प्रथम आटे को केवल घृत में भून (सेक) लेते हैं। फिर गुड़ को भी केवल घृत में गला लेते हैं। पीछे उसमें उक्त भुना हुआ आटा मिला के लड्डू बना लेते हैं। इनमें तेल व पानी आदि कुछ भी पदार्थ न मिलने से ये लड्डू द्राविड़ सम्प्रदाय के अनुसार फलवत् ग्राह्य होते हैं। इससे भी पुष्करणे ब्राह्मणों का प्राचीन आचार द्राविड़ सम्प्रदाय के अनुकूल होने का पूर्ण पता लगता है। पुष्करणा ब्राह्मणों का संस्कार धर्म शास्त्रों की आज्ञानुसार इस जाति में भी गर्भाधानादि संस्कार यथावत् किये जाते हैं। जैसे गर्भाधान, पंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्न प्राशन, चूड़ा कर्म, कर्ण वेध, उपनयन, वेदाध्ययन, समावर्त्तन, विवाह आदि संस्कार उचित काल में करते हैं। इनमें सीमन्तोन्नयन, जात कर्म, चूड़ा कर्म, यज्ञोपवीत, समावर्त्तन, विवाह और अन्त्येष्टि के समय तो अपनी सामर्थ्य के अनुसार बहुत द्रव्य लगाते हैं। पुष्करणा ब्राह्मणों में सम्बन्धियों के परस्पर-प्रेम विवाह आदि के समय सम्बन्धियों में परस्पर प्रेम जैसा पुष्करणे ब्राह्मणों में सदा से रहता आता है। वैसा शायद ही किसी और जाति में रहता होगा। इस शिष्टाचार के लिये पुष्करणों की जाति प्रसिद्ध है। रिपोट मर्दुम शुमारी राज्य मारवाड़ ने भी अपने तीसरे भाग के पृष्ट संख्या 132 में उनकी प्रशंसा की है:- ’’पुष्करणे ब्राह्मणों में ब्याह-शादी के दस्तूर बहुत सीधे-साधे हैं और उनके आपस के बर्ताव भी बहुत अच्छे हैं। जिससे बहुत कुछ फायदा न्यात सम्बन्धी होता है और इसी सम्बन्ध से इनके ब्याहों में कभी कोई झगड़ा बखेड़ा दूसरी कौमों के माफिक नहीं होता, बल्कि दूतरफा बहुत रंग और प्यार रहता है। बाप और भाई वगैर उसकी तारीफ ही करते हैं कि ’आपका क्या कहना है आप तो इन्द्र होकर ऊपर बरसे है।’ ’दूसरी उमदा बात यह है कि ब्याह में चाहे जितना रुपया खर्च करें और चाहे कम, मगर बहुत कम हिस्सा उसका गैर कौमों में जाता है। क्योंकि जो देने दिलाने का दस्तूर है, वह सब आपने ही लगती वालों में दिया जाता है। गैर कौम में नाई ब्राह्मण, भाट वगैरा को, जैसा क दूसरी कौमों में दस्तूर है, नहीं दिया जाता और जो दिया जाता है तो बहुत कम।’ ’तीसरे, बेटे वाले से रीत या व्यौहार लेने का दस्तूर नहीं है। गरीब से गरीब हो वह कुछ नहीं लेता। हाँ जो कोई गाँवों में कुछ छुपे चोरी ले ले तो अच्छा नहीं लगता।’ ’चौथे, बिरदारी वाले खुशी से हरेक अमीर गरीब के घर बराबर बुलाये से आ जाते हैं। और वहां जो खाना कम भी हो तो भी थोड़ा-थोड़ा खाकर वाह-वाह करके चले जायेंगे, और यह बात हर्गिज नहीं जाहिर होने देंगे कि खाना नहीं था या कम था।’ पुष्करणे ब्राह्मणों में सती प्रथा इस देश में द्विजों (ब्राह्मणों, क्षत्रिय और वैश्यों) में सती होने की प्रथा परम्परा से चली आती है। तदनुसार पुष्करणे ब्राह्मणों में भी सतियां होती आई है जैसेः- बीकानेर के व्यासजी श्रीरामजी की सुपुत्री एवं आचार्य वंशभूषण श्री शिवदासजी के द्वितीय पुत्र श्री मुरारदासजी की पत्नी थी। श्री मुरारदासजी बीकानेर के तत्कालीन महाराजा श्री अनूपसिंहजी के साथ दक्षिण भारत गये थे वहीं कोकन नामक स्थान में संवत् 1740 चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को रणक्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुए। जिस दिन रणक्षेत्र में वे वीरगति को प्राप्त हुए उसी दिन उनकी धर्मपत्नी साँमादेवी अपने देवर श्री धरणीधरजी के साथ धूलेड़ी (छालोड़ी) का दिन होने के कारण होली खेल रही थी। नाना प्रकार के रंगों से युक्त जल के कड़ाव भरे हुए थे। देवर-भाभी एवं परिवार केे अन्य सदस्य रंगों से सरावोर हो रहे थे सारा परिवार आनन्द सागर में हिलोड़े ले रहा था। रंग, गुलाल एवं अबीर की मानो वर्षा हो रही थी कि एकाएक श्री मुरारदासजी की पत्नी ने पिचकारी दूर फैंक कर अपने देवर से कहा कि पता नहीं क्यों मुझे अभी आभास हुआ है कि उनका (मुरारदासजी का) स्वर्गवास हो गया। वे वीरगति को प्राप्त हो गये अतः राग रंग बन्द कर दिये जावे। यद्यपि बात किसी के समझ में नहीं आई फिर भी होली खेलने का कार्यक्रम तत्काल बन्द कर दिया गया। सारा परिवार जो कि कुछ मिनटों पूर्व आनन्द सागर में मगन होकर चहक रहा था शोक सागर में डूब गया। घर के बूढ़े बडेरों ने बहुत समझाया कि बिना समाचार के इस घटना को मन में उठे विचार के आधार पर कैसे सच मान लिया जावे किन्तु साँमादेवी अपनी बात पर दृढ़ रहीं। उन्होंने पतिदेव के पीछे सती होने का संकल्प परिवार के लोगों के समक्ष रखा। पूर परिवार के समझाने पर भी वे अपने संकल्प पर दृढ़ रहीं। अन्त में दक्षिण भारत से समाचार आने तक इन्तजार करने का निश्चय किया गया। पूरे बीस दिन के पश्चात् औरंगाबाद से हलकारा श्री मुरारदासजी की पाग एवं दुपट्टे के साथ उनकी मृत्यु के समाचार लेकर संवत 1741 चैत्र शुल्का 5 को बीकानेर पहुँचा। उसी दिन श्रीमती साँमादेवी सुपुत्री श्री श्रीरामजी व्यास अपने पति मुरारदासजी के दुपट्टे से गठजोड़ा बांध पति की पाग को गोद में लेकर सती हो गई। सती होने से पूर्व उन्होंने आचार्य परिवार के लिये कुछ मर्यादाएं निर्धारित की जिनका आजतक समस्त आचार्य जाति द्वारा पालन किया जा रहा है। इन मर्यादाओं में मुख्य महिलाओं के लिये फागनियां रंग का ओढ़णा एवं पुरुषों के लिये इसी रंग की पाग धारण करने की मनाही, यज्ञोपवीत संस्कार से पूर्व बालकों को सफेद कपड़े पहनाने की मनाही व कर्ण छेद करने की एवं यज्ञोपवीत संस्कार से पूर्व मुंडन की मनाही आदि हैं। इन सती माता की याद में प्रतिवर्ष देवल, चौखूंटी, बीकानेर के पास जहां ये सती हुई थी मेला लगता है। आचार्य परिवार के सैकड़ों लोग उस दिन सती माता की सामूहिक पूजा करके अपने आप को धन्य मानते हैं। जोधपुर के चण्डवाणा जोशियों की एक कन्या बोहरा जाति के एक लड़के को ब्याही थी। एक दिन रात्रि के समय वह कन्या ससुराल में रहने के लिये आई। किन्तु उसका पति (लड़का) अपने सोने के स्थान का द्वार भीतर से बन्द करके पहिले से ही सो रहा था, इसलिये लज्जा के मारी पति से द्वार न खुला के रात भर कमरे के द्वार के पास बाहर ही सोती रही। सवेरा होते ही यह तो शीघ्र उठकर अपने पहर को चली गई। और उधर लड़का उठकर तापी नानकबाड़ी में स्नान करने गया। वहां वह दैवयोग से उसमें डूब गया। इसको निकालने के पीछे एक करके 7 मनुष्य डूब गये। इस बात को दैवकोप समझकर पीछे तो लोगों ने और किसी को भी जल में नहीं घुसने दिया। किन्तु अन्त में 7 मनुष्य तो मर ही गये। उस कन्या के पति के जल में डूब मरने का समाचार कन्या के पीहर वालों को पहुंचने से पहिले ही उस कन्या के हृदय में इस बात की स्फुरणा हो गई थी। फिर वह कन्या स्नान कर पवित्र वस्त तथा आभूषण पहिन के ‘सती’ हो गई। उसकी छत्री जोधपुर में सिवांची दरवाजे के भीतर है, और प्रतिवर्ष उस तिथि को उनके दोनों वंशवाले वहां पर जाकर उत्सव करते हैं। इस प्रकार लुद्रवा, आशनीकोट, जैसलमेर आदि से लेकर जहां-जहां पुष्करणे ब्राह्मणों का निवास स्थान रहा है। वहां-वहां पुष्करणे ब्राह्मणों की सतियों पर की कई छत्रियों अधावधि विद्यमान है और उनके वंशवाले उनकी मानता करते हैं। इतना ही नहीं किन्तु उन सतियों ने जो-जो कार्य करने को मनाई की थी, उन कार्यों को भी आजतक वे नहीं करते हैं। यहां तक कि यदि वे कार्य भूल से भी हो जाये तो उनका कु-फल तुरन्त जतला देता है। ऐसे कई सतियों का चमत्कार आज तक देखने में आता है। अलबतः जबसे सती होने की प्रथा इस देश में राजाज्ञा से बन्द करदी गई है। तबसे पीछे तो पुष्करणों में भी सती होने नहीं पाती है। पुष्करणे ब्राह्मण की स्थिति ब्राह्मण का मुख्य भूषण संतोष है। पुष्करणे ब्राह्मण भी सता से संतोषी तथा निस्पृही (निर्लोभी) होते आये थे। सैकड़ों वर्ष के पहिले जब इनके पूर्वज सिन्ध देश में निवास करते थे। तब यहां की प्रधान नगरी व इनके यजमान राजाओं की प्रधान राजधानी ‘आलोर’ या ‘आरोर’ में भी अधिकता से बसते थे। वहां के सभी मनुष्य 125 वर्ष से भी ऊपर की आयु के वृद्ध होने पर भी हस्ट-पुष्ट और बलिष्ट होते थे। वह सब उनके ब्रह्मचर्य और नियमित रूप से जीवनचर्या निर्वाह करने का फल था। वहां के युवा पुरुष अपना सब कार्य अपने ही पौरूष के साथ सम्पादन करते थे। उन्हें किसी सेवक (नौकर) के सहारे जीवन बिताने की बान (आदत) की आवश्यकता नहीं थी और इसीलिये उस देश में दास-दासी (गुलाम) बनाने की प्रथा नहीं थी। वे दूध-घी का भोजन अधिक करते थे। वे बड़े दूरदर्शी व देश काल के पूर्ण ज्ञाता होने से सबके भले में आना भला समझे थे। वे जाति मर्यादा के भी ऐसे पक्के थे कि नहीं करते थे। उस देश में दीवानी मुकदमों के फैसले करने के लिये अदालतें रखने की आवश्यकता नहीं थी केवल जघन्य अपराधों (उपद्रवों) की जांच के लिये कुछ पंच नियत थे। वे धन को भी संग्रह करने की अपेक्षा परोपकारी कार्यों में लगा देने को उत्तम मानते थे। वह देश सोने और चांदी की खानों से खाली नहीं था, परन्तु इन धातुओं को बहुमूल्य जानते हुए भी इनका व्यवहार शारीरिक शक्ति की उन्नति के लिये बाध होने से इनको छूते भी नहीं थे। जिसके कारण स्वजाति में राज्य मान्य श्रीमन्तों और साधारण लोगों में विवाह आदि के समय कुछ भी भेद ़प्रतीत नहीं होता था। इत्यादि प्रकार के अनेक शुभ गुणों से तो विभूषित और ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान, मिथ्या, पक्षपात आदि अवगुणों से वे रहित थे। विक्रम सम्वत् के प्रारम्भ से 270 वर्ष पहले यूनान देश के बादशाह सिकन्दर ने इस सिन्ध देश पर भी चढ़ाई करके वहां का राज्य नष्ट कर दिया था। उस समय के वहां के निवासियों के पूर्वाक्त गुणों को सच्ची महिमा सिकन्दर के साथी यूनानी इतिहास लेखकों ने भी बड़े आनन्द और आश्चर्यजनक शब्दों में की है, जिसे आज 2239 वर्ष व्यतीत हो गये हैं, यद्यपि इतने अधिक समय में बहुत सा परिवर्तन भी हो गया है। तथापि यूनानी लेखकों के कथन की सत्यता कई प्रमाण इस जाति में अब तक पाये जाते हैं।

Tuesday, October 25, 2011

पुष्करणा ब्राहम्णों के चौदह गोत्र और चौरासी जातियां

(1)उतथ्य गोत्री, ऋगर्वेदी, आश्वलायनसूत्री
1.बाहेती 2.मेडतवाल 3.कॅपलिया 4.वाछड़ 5.पुछतोड़ा 6.पाण्डेय

(2) भारद्वाज गोत्री, यर्जुर्वेेदी, कात्यायन सूत्री
7.टंकाशाली (व्यास) 8. काकरेचाा 9.माथुर 10.कपटा (बोहरा) 11. चुल्लड़ 12. आचार्य

(3) शाण्डिल्य गोत्री, यर्जुर्वेदी, कात्यायन सूत्री
13. बोघा (पुरोहित) 14. मुच्चन(मज्जा) 15. हेडाऊ 16. कादा 17. किरता 18.नबला

(4) गौतम गोत्री, यर्जुर्वेदी, कात्यायन सूत्री
19. केवलिया 20.त्रिवाडी (जोशी) 21.माधू 22.गोदा 23.गोदाना 24.गौतमा

(5) उपमन्यु गोत्री, यर्जुर्वेदी, कात्यायन सूत्री
25.ठक्कुर(उषाघिया) 26.बहल 27.दोढ़ 28.बटृ 29.मातमा 30.बुज्झड़

(6) कपिल गोत्री, यर्जुर्वेदी, कात्यायन सूत्री
31.कापिस्थलिया(छंगाणी) 32.कोलाणी 33.झड़ 34.मोला 35.गण्ढडिया(जोशी) 36.ढाकी

(7) गविष्ठिर गोत्री, सामवेदी, कात्यायन सूत्री
37.दगड़ा 38.पैढ़ा 39.रामा 40.प्रमणेचा 41.जीवणेचा 42.लापसिया

(8) पारासर गोत्री, सामवेदी, लाट्यायन सूत्री
43.चोबटिया(जोशी) 44.हर्ष 45.पणिया 46.ओझा 47.विज्झ 48.झुण्ड

(9) काश्यप गोत्री, सामवेदी, लाट््यायन सूत्री
49.बोड़ा 50.लोढ़ा(नागूं) 51.मुमटिया 52.लुद्र(कल्ला) 53.काई 54. कर्मणा

(10) हारित गोत्री, सामवेदी, लाट्यायन सूत्री
55.रंगा 56.रामदेव थानवी मूता 57.उपाध्याय 58.अच्छु 59.शेषधार 60.ताक(मूता)

(11) शुनक गोत्री, सामवेदी, लाट्यायन सूत्री
61.विशा 62.विग्गाई 63.विड़ड् 64.टंेटर 65.रत्ता 66.बिल्ला

(12) वत्स गोत्री, सामवेदी, लाट्यायन सूत्री
67.मत्तड ़ 68.मुडढर 69.पडिहार 70.मच्छर 71.टिहुसिया(जोशी) 72.सोमनाथा

(13) कुशिक गोत्री, सामवेदी, लाट्यायन सूत्री
73.कबडिया 74. किरायत 75.व्यासड़ा 76.चूरा 77.बास 78.किराडू
(14) मुद्गल गोत्री, अथर्ववेदी, शांखायन सूत्री
79.गोटा 80.सिह 81.गोदाणा 82. खाखड़ 83.खीशा 84.खूहार

पुष्करणा ब्राहम्णों का इतिहास व जाति संगठन

लेखक पाली-मारवाड़ निवासी
श्री मीठा लाल व्यास


ज्ञाति वृतान्त जानने की आवश्यकता-
आत्मनों ज्ञाति वृत्तान्त, यो न जानाति ब्राहम्णः।
ज्ञातीनां समवायार्थ,पृष्टः सन्मूक तां व्रजेत्ं ।।

यदि कोई भी ब्राहम्ण अपनी ज्ञाति का वृतान्त न जानता हो, तो उससे जब कभी ज्ञाति सम्बन्घी कोई भी बात पूछी जावे तो उसको लज्जित होकर मूकवत (चुप) हो जाना पड़ता है। अतः प्रत्येक को अपनी-अपनी ज्ञाति के प्राचीन ऐतिहासिक वृतान्तों से जानकार होना चाहिए।

मनुष्यों की उत्पति -

ब्राहम्णोंस्यों मुखामासोदबाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्रेश्यः, पद्भ्या्् शूद्रों अजायत ।।

सष्टिकर्त्ता ब्रहमा के मुख से तो ब्राहम्ण, भुजा से क्षत्रिय, ऊरू (जंघा) से वैश्य और पैर से शुद्र उत्पन्न हुये। यही बात मनुस्मृति के प्रथमाध्याय के 31 वे श्लोक मंे, तथाा ऐसा ही वर्णन भागवत पुराण आदि मंे भी है।

मनुष्यों के चार वर्ण -

ब्रामम्णों , क्षत्रियोंे, वैश्यस्त्रयोवर्णा द्धिजासयः।
चतुर्थ एक जातिस्तु, शुद्रों, नास्ति तु पंचमः ।।

मनुष्यां ेमंे गुण, कर्म, स्वाभावानुसार (1) ब्राहम्ण (2) क्षत्रिय (3) वैश्य और (4) शुद्र
ये - चार ही वर्ण माने गये है। इनमंे शूद्र को छोड़कर प्रथम तीन द्विज वा द्विजाति कहलाते है, क्योंकि उपनयन संस्कार द्वारा इनका दूसरा जन्म माना गया है। इनके अतिरिक्त पांॅचवा वर्ण कोई नहीं है।

सम्पूर्ण ब्राहम्णों को एक समुदाय -

सृष्टयारम्भे ब्राहम्णानां, जातिरेका प्रकीर्तिता ।

सृष्टि के प्रारम्भव मंे तो ब्राहम्णों का एक ही समुदाय था, इस समय की भॉति जाति भेद कुछ भी नहीं था, किन्तु केवल गोत्र प्रवर-वेद-शाखा-आदि मात्र से पहचाने जाने का व्यवहार था।

ब्राहम्णों की दो सम्प्रदायें -

ततः कालान्तरें तेंषां, देशाद्भेदोद्विधाभवत

फिर बहुत समय पीछे वे लोग दूर-दूर जा बसे, उनमंे जो विन्ध्याचल के उत्तरथ गौड़ देश मंे जा बसे तो वे गौड़ कहलाने लगें, और जोे विन्ध्याचल के दक्षिण द्रविड़ देश मंे जा बसे वे द्राविड़ कहलाये। इसी प्रकार उनकी उत्तरी और दक्षिणी दो सम्प्रदाये बन गई

पुष्करणा जाति संगठन का संक्षिप्त वृतान्त -

श्रीमाल पुराण का ऐतिहासिक दृष्टि से निरीक्षण करने से विदित होता ळै कि पूर्वकाल मंे भिन्न-भिन्न गोत्रांे मंेे ब्राहम्णों मंे से 14 गोत्र के ब्राहम्ण सैन्धवारण्य(सिन्ध देश) मंे भी निवास करते थें। वे उस देश के राजाओं के पुरोहित होने से सिन्ध की प्राचीन राजधानि ‘ओलोर‘ वा ‘ओरोर‘ नगरी मे विशेष संख्या मंे रहते थें। उन ब्राहम्णें ने अपने समूह के उपयोगी और देश के अनुकूल हो वैंसे नियम बनाकर अपने समूह की मर्यादा नियत कर ली थी। फिर वे ही ब्राहम्ण कालान्तर मंे ‘भीनमाल(श्रीमाल) मंे चले गये थें। किन्तु वहॉ के ब्राहम्णों के मत के साथ अपना मत न मिलने से वहॉ अधिक समय तक न ठहर कर पीछे लौट आये और देश कालनुसार पुराने नियमों मंे कुछ संशोधन करके अपी जाति मर्यादा फिर स्थिर कर ली थी। तभी से हमारी जाति का संगठन हुआ।
पुष्करणा जाति का पंचद्राविड़ों मंे से गुर्जर ब्राहम्णों की एक शाखा होना-
इनके पुर्वक पुर्वकाल मंे सैन्घवारण्य(सिन्ध देश) मंे रहते थें। फिर वहॉ से श्रीमाल नगर मंे आ गये थें, और श्रीमाल नगर गुजरात मंे होने से वहॉं के ब्राहमणों की ‘श्रीमाली‘ ‘पुष्करणा‘ आदि जातियों मंे भी गुर्जर ब्राहमणों की शाखाये मानी गई थी।
पुष्करणों के पुर्वजों को कालान्तर मंे मारवाड़ आदि निर्जल प्रदेशों मंे अधिक समय तक निवास करने, तथा राजभक्त शुभचिन्तक होने से मुसलमानी अत्याचार के समय अपने-अपने यजमान व स्वामी महाराजाओं के साथ जहॉ तहॉ भटकते फिरते रहीने आदि से उनके आचार विचार कुछ शिथिलता हो गई है। तथापि इनका आचार विचार तथा खान पान आदि सदा से प्रायः द्राविड सम्प्रदाय ही के अनुकूल अब तक चला आया है। उदाहरण स्वरूप ये न तो लहसून,पलाण्डु गुजन आदि अभक्ष्य का भक्षण करते है और न हुक्का बीड़ी आदि अपेेेेेेय का पान करते है।
‘ब्राहम्ण निर्णय‘ नामक पुस्तक के पृष्ठ 382 मंे लिखा है कि हमने अपने नेत्रों से देखा है कि पुष्करणें ब्राहम्णें खान-पान से बड़े पवित्र होते है।
ऐतिहासिक विद्वानों ने भी पुष्करणों की गणना द्राविड़ों मंे के गुर्जर ब्राहम्णों मंे की है। उनमंे से दो एक सज्जनों का उल्लेख हम यहॉ पर कर देते है।
जाति विषयक विद्वान श्रीयुत पाण्डोबा गोपालजी ने अपनी पुस्तक के पृृष्ठ संख्या 100 मंे, जहॉं गुर्जर ब्राहम्णों की 84 जातियों की गणना की है, वहॉ छठी संख्या पर पोकरणें (पुष्करणे) ब्राहमणों का भी नाम लिखा गया है।
ऐसे ही पादरी रेवण्ड शैरिंग साहब एम.ए.एल.एल.बी. ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दूकाट्स‘ के पृृष्ठ 77 मंे पुष्करणे ब्राहमणों की गणना पश्चद्राविडान्तर्गत ब्राहम्णों मंे की है।
इसी प्रकार भारतम सरकार ने सन् 1901 की मनुष्य गणना की पच्चीसबी जिल्द ‘राजपुताना सर्किल की रिपोर्ट के पृष्ठ 146 मंे लिखा है।
ष्ज्ीम चनेीांतदंे ंतम ं ेमबजपवद व िजीम हनतरंत इतंीउंदष्ष्
अर्थात पुष्करणे ब्राहमण ‘गुर्जर‘ ब्राहम्णों का एक भेद है। फिर भी उसी पुस्तक के पृष्ठ 164 मंे गुर्जर ब्राहम्णों की नामावली मंे भी पुष्करणंें ब्रहमणो की गणना की है।
अहमदाबाद आदि गुजरात प्रान्त मंे सम्पूर्ण ब्राहम्णों की चौरासी को भोजन कराने की पुरानी प्रथा अब तक चली आती है। जब कभी वहॉ ऐसा भोजन होता है तो उस भोजन मे पुष्करणे ब्राहमण भी निमन्त्रित किये जाने है और वे उस भोज मंे सम्मिलित होते है।
पुष्करणा जाति का श्रीमाली जाति के साथ निकट संबंध-
पुष्करणा और श्रीमाली से दोनो ही जातिया पंच द्राविडों मंे से गुर्जर ब्राहमणों की एक शाखा के अन्तर्गत है। इन दोनों के आचार-विचार मंे देशकाल के कारण कुछ-कुछ विभिन्नता हो गई है। तथापि इन दोनों का मूल आचार द्राविड साम्प्रदाय ही के अनुकूल सदा से चला आया है। इन दोनों मंे 14-14 छकडियों के 84-84 उपनाम है उनमंे से कितने एक उपनाम भ्ज्ञी एक ही है। (जैसे-गोदा,नवलखा,ठक्कुर,कपिजल,पुच्छतोडा,गौतमीया,प्रमणेचाा,जीवणेचाा,इत्यादि)इसकेक अतिरिक्त इन दोनों के गोत्र भी एक ही है अर्थात जिन 14 ऋषियांे के नाम 14 गोत्र पुष्करणें मंे है,उन्ही 14 ऋषियों के नाम 14 गोत्र श्रीमालियांे मंे भी है। इत्यादि बातों के देखने से इन दोनो के पूर्वजों का परस्पर अति निकट संबंध होना तो सिद्ध होता ही है,किन्तु श्रीमाली ब्राहमणों तो यहॉ तक मानते है कि ये दोनों मूल समुदाय (जाति) मंे से दो विभाग होकर हुए है। स्कन्द पुराणन्तर्गत श्रीमाल महात्म्य की एक पुस्तक ‘श्रीमाल पुराण‘ के नाम से गुजराती भाषा टीका सहित पं. जटाशंकर लीलाधर जी तथा पं. केशव जी विश्वनाथ जी नामक श्रीमाली सज्जनों ने सं.1955 मंे अहमदाबाद से प्रकाशित की है। उस पुस्तक के परिशिष्ट मे दिये हुए संक्षिप्त इतिहास के अन्तर्गत पृष्ठ संख्या 782 मंे श्रीमाली मांथी पडे़ला बीजा विभागों के नाम शीर्षक के नीचे उक्त प्रकाशकों इस प्रकार लिखा है कि -
‘‘ पुष्करणा-श्रीमाली मांथी-5000 पुष्करणा यथा कहवायछे जे सिंध देशाना ब्राहमणों गोतमनीर पूजा करवानी ना पाडवाथी पाछा सिंघ देष मां गया ते ओ सिंध पुष्करणा कहेवाया,बाकी ना पुष्करणाओं जोधपुरमां रहां तथा केटलाक गुजरात काठीयावाड तथा कच्छमां आवीने वस्रूा, पोकरणाओं पुष्करणा नो अपभंश शब्दछे।‘‘
(अक्षर गुजराती)
श्रीमाली ब्राहमणों के इस कथन की पुष्टि उपरोक्त श्रीमाल महात्म्य मंे के वर्णित इन दोनो जातियों के पूर्वजों के विस्तृत वृृतान्तों के मिलने से भी होती है।
श्रीमाल पुराण के प्रकाशन मंे अपूर्णता-
पुष्करणा ब्राहमणों के पूवजों (सैन्धवारण्य के ब्राहमणों )का तथा श्रीमाली ब्राहमणों के पूर्वजों का वृतान्त स्कन्द पुराणान्तर्गत ‘श्रीमाल माहात्म्य के विस्तार से लिखा हुआ है, उसी मंे से उद््धृत पुष्करणंे ब्राहमणों के पूर्वजांें से संबंध रखने वाले वृतान्तों का संग्रह रूप ‘पुष्करणोपाख्यान‘ नामक एक प्राचीन पुस्तक है। उक्त श्रीमाल महात्म्य के अध्यायों की संख्या 103 होना सदा से सुनने मंे चला आया है। किन्तु इधर उसी महात्म्य की पूर्व प्रकराणोक्त ‘श्रीमाल पुराण‘ नाम से प्रकाशित पुस्तक मंे केवल 75 ही अध्याय हइसे गये है। उस पुस्तक मंे पुष्करणें ब्राहमणों से संबंध रखने वाले कितने ही श्लोक देखने मंे नहीं आये, यहॉ तक कि श्रीमाल क्षेत्र मंे भृगु ऋषि की कन्या श्री लक्ष्मी जी का श्री भगवान के साथ विवाह हाने के उपलक्ष्य मे श्रीमाल

Sunday, October 23, 2011

पुष्करणा समाज को एक सूत्र में पिरोने के उद्देश्य से डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डोट पुष्करणा समाज डोट कोम नाम से वेबसाइट बनाने का काम प्रगतिरत है. इसे शीघ्र ही लौंच कर दिया जाएगा. इसमें पुष्करणा समाज के विशिष्ठ लोगो का परिचय, समाज के आम नागरिक की विविध जानकारियाँ तथा समाज की सामाजिक गतिविधियों का संकलन किया जाएगा. वेबसाइट के प्रमाणिक और सटीक संकलन में आपका सहयोग सादर वांछनीय है.
adhik jaankari ke liye sampark karein.
avinash acharya
acharyon ka chowk, bikaner
mobile. 09460187626
email.: avinash.ajtv@gmail.com

website: www.pushkarnasamaj.com